१०, मे २०१५
           
पाञ्चजन्य   

देश का नवरत्न मुहाने पर :'टाइटैनिक' की राह पर एमटीएनएल

तारीख: 09 May 2015 16:14:23

 



राहुल शर्मा/आदित्य भारद्वाज
कभी दिल्ली और मुंबई की जीवनरेखा कहे जाने वाला महानगर टेलीफहोन निगम लिमिटेड (एमटीएनएल ) आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। 3जी सर्विस शुरू करते ही मानो एमटीएनएल पर ग्रहण लगना शुरू हो गया। आज यह उपक्रम 14 हजार करोड़ रुपए के कर्ज में डूब चुका है। इसके लिए कर्मचारी नहीं, बल्कि पूर्ववर्ती केन्द्र सरकार और प्रबंधन की विकास-विस्तार के लिए ठोस नीति का अभाव होना सबसे बड़ा कारण है। आज एमटीएनएल के कर्मचारियों को उनका वेतन भी बैंक से ऋण लेकर चुकाना पड़ रहा है।
देश में आजादी के बाद से पोस्ट एंड टेलीग्राफ (पीएंडटी) अपनी सेवाएं देता आ रहा था। बाद में डिपार्टमेंट ऑफ टेलीकॉम (डीओटी) के अंतर्गत दिल्ली और मंुबई में एमटीएनएल का सफरनामा वर्ष 1986 में शुरू हो गया। इसके बाद अक्तूबर, 2000 में एमटीएनएल को सार्वजनिक-निजी उपक्रम (पब्लिक सेक्टर) में शामिल कर दिया गया। लेकिन वर्ष 2010 में केन्द्र सरकार द्वारा एमटीएनएल पर 3जी सर्विस थोपे जाने से स्थितियां ऐसी बिगड़ीं कि आज तक संभलने में नहीं आ रही हैं।
जिस समय केन्द्र सरकार ने एमटीएनएल को 3जी सर्विस दी, उस समय एमटीएनएल इसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था। इस उपक्रम के पास 3जी सर्विस के लिए पर्याप्त उपकरणों का भी अभाव था। लेकिन सरकार के अडि़यल रवैये के आगे किसी की एक न चली। आनन-फानन में एमटीएनएल को एक वर्ष पूर्व 'ट्रायल रन' के तौर पर 3जी सेवाएं शुरू करने को कहा गया। हैरानी की बात यह है कि एमटीएनएल ने इसके लिए आवेदन तक नहीं किया था, इसके लिए अन्य उपकरण की खरीद-फरोख्त में एमटीएनएल पर अतिरिक्त बोझ पड़ना शुरू हो गया था। केन्द्रीय दूरसंचार मंत्रालय ने एमटीएनएल के समक्ष यह शर्त रखी कि वह 'स्पेक्ट्रम' आवंटित करने वाली बोली के लिए भागीदार नहीं बनेगा, लेकिन जो भी सेलुलर कंपनी सबसे अधिक बोली लगाएगी, वह कीमत एमटीएनएल को 3जी सर्विस पाने के लिए चुकानी होगी। इसके लिए एमटीएनएल को 5 हजार करोड़ रुपए की एफडी (फिक्स डिपोजिट)तोड़ने के साथ-साथ 7 हजार करोड़ रुपए का बैंक से ऋण भी लेना पड़ा। इसमें खास बात यह रही कि अकेले मुंबई और दिल्ली महानगर 'स्पेक्ट्रम' के लिए महंगे शहर थे। यदि पूरे देश में 18 हजार करोड़ रुपए खर्च कर 3जी सर्विस मिलती है तो अकेले मुंबई और दिल्ली को 3जी सर्विस के लिए करीब 10 हजार करोड़ रुपए खर्च करने पड़े। साथ ही कुछ ही समय बाद बीडब्ल्यूए(ब्राडबैंड वायरलैस एक्सेस)यानी 4जी सर्विस भी एमटीएनएल पर जबरन थोप दी गई। इसकी सर्विस के लिए जो चैनल एमटीएनएल को मुहैया कराया गया, वह भी बेहतर नहीं था। इस दौर में लोगों के पास न तो 3जी सैट ही पर्याप्त संख्या में थे और न ही बाजार में उपकरण सस्ते थे। इस पूरे प्रकरण में एमटीएनएल निजी कंपनियों के मुकाबले स्वयं को स्थापित करने में कर्ज तले दबता चला गया। जिस समय 3जी सर्विस का ट्रायल रन पूरा हुआ, उस समय में बाजार में एक साल पहले वाले उपकरण सस्ते हो चुके थे। इसका पूरा लाभ निजी मोबाइल कंपनियों को मिला। एक अहम बात यह रही कि एमटीएनएल की तुलना में निजी कंपनियों के टॉवर कई गुना अधिक थे। फिर एमटीएनएल को जो फ्रीक्वेंसी दी गई थी, उसके लिए बाजार में उपकरण उपलब्ध नहीं थे। प्रतिस्पर्द्धा के इस दौर में जहां एमटीएनएल गिन-गिन कर सांसें ले रहा था, वहीं निजी कंपनियां उपभोक्ताओं को बेहतर सर्विस मुहैया करा रही थीं। इससे एमटीएनएल के उपभोक्ता यहां से निजी मोबाइल कंपनियों की ओर रुख करने लगे। प्रबंधन और सरकार की हठधर्मिता के चलते बीडब्ल्यूए यानी 4जी सर्विस 2010 से शुरू करने के बाद 2014 तक जब सफल नहीं हो सकी तो उसे वापस कर दिया गया। लेकिन इसके लिए एमटीएनएल की ओर से जमा कराए गए 4500 करोड़ रुपए पर कोई ब्याज नहीं दिया गया, जबकि एमटीएनएल ने इस राशि को जमा करने के लिए बैंक से लिए ऋण का करोड़ों रुपए कर्ज चुकाया। इसकी भरपाई के लिए कभी भी नहीं सोचा गया। उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा देने के लिए जहां एमटीएनएल के पास दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रांे में 2जी के 1100 से 1200 एंटीना हुआ करते थे, वहीं निजी कंपनियों के 4000 से अधिक एंटीना हुआ करते थे। इसी तरह 3जी सर्विस में एमटीएनएल के पास 600-700 एंटीना होते थे, जबकि निजी कंपनियों के पास अपने-अपने 2000 से अधिक एंटीना रहते थे। इस कारण निजी कंपनियां उपभोक्ताओं को एमटीएनएल के मुकाबले बेहतर सर्विस देने में आगे निकल गईं। अनुमान के तौर पर एमटीएनएल की सालाना 3500 करोड़ रुपए आय होती है, और पांच हजार करोड़ रुपए का खर्च होता है। इस लिहाज से हर वर्ष एमटीएनएल पर 1500 करोड़ रुपए का कर्ज बढ़ रहा है। हालत यह हो गई कि कर्ज में डूबा एमटीएनएल 2जी सर्विस की भी देखभाल नहीं कर सका और इस कारण से उपभोक्ता एमटीएनएल को छोड़कर दूसरी कंपनियों की सेवाएं लेने लगे।

'लैंडलाइन फोन' में आज भी अग्रणी
एमटीएनल आज भी देश में राष्ट्रपति भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, संसद, रक्षा मंत्रालय, सीबीआई, दिल्ली पुलिस, अस्पताल और शिक्षा संस्थानांे सहित अनेक स्थानों पर अपनी सेवा देने में अग्रणी है। आज भी इन सभी स्थानों पर एमटीएनएल की सेवा का लोहा माना जाता है। यदि 'राष्ट्रमंडल खेलों' की बात करें तो उस दौरान एमटीएनएल का 'सैटअप' अद्वितीय रहा क्योंकि फ्रीक्वेंसी के मामले में जहां चीन के
बीजिंग में हुए खेलों के दौरान 18 सेकेंड की सेवा में खराबी दर्ज की गई थी, वहीं दिल्ली में बिना किसी रुकावट के खेलों का संचालन संपन्न हो सका, इसका श्रेय भी एमटीएनल को ही जाता है।


नई तकनीक का अभाव


एमटीएनएल पर एक तरफ तो बिना किसी योजना के 3जी और 4जी सेवा का बोझ थोप दिया गया, वहीं तकनीक के मामले में कोई नई कारगर योजना नहीं बनाई गई। इस कारण भी एमटीएनएल का बहुत अधिक विकास नहीं हो सका। प्रतिस्पर्द्धा के चलते जहां निजी कंपनियां आए दिन कोई न कोई तकनीक उपभोक्ताओं के समक्ष रखकर अपना बाजार बना रही हैं, वहीं एमटीएनएल कोई आकर्षक योजना को साकार नहीं कर सका। इसके लिए कहा जा सकता है कि स्थिति जस की तस ही बनी हुई है। एमटीएनएल में नई तकनीक या परिर्वतन नहीं होने के पीछे मुख्य कारण मुख्य प्रबंध निदेशक का पद है। इस पद पर नियुक्त अधिकारी या तो लंबे समय तक अवकाश पर रहते हैं या उनका एकमात्र लक्ष्य केवल अपना कार्यकाल पूरा करना रहता है। इनके अस्थाई होन के कारण अधिक विकास नहीं हो पाता है। वहीं महाप्रबंधक, उप प्रबंधक और कार्यकारी निदेशक स्तर के अधिकारी संघलोक सेवा आयोग के जरिये इंडियन टेलीकॉम सर्विस (आईटीएस) से एमटीएनल में आते हैं। कर्मचारियों का ऐसा मानना है कि जो अधिकारी एमटीएनएल में सीधे नहीं जुड़े होते हैं, उनमें यहां के प्रति कोई विशेष सहानुभूति नहीं रहती है।
निर्णय का अभाव
एमटीएनएल के अधिकारियों में किसी तकनीक या अन्य महत्वपूर्ण विषय को लेकर निर्णय का अभाव बना रहता है। इस कारण से इस उपक्रम का कायाकल्प नहीं हो सका। आज भी एमटीएनल के दिल्ली-मुंबई में करीब 32 हजार कर्मचारी कार्यरत हैं, जिनमें करीब 4 हजार अधिकारी शामिल हैं। यहां पर वीआरएस (स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना) भी कभी-कभार ही लाई जाती है। इस कारण से नये पदों का सृजन भी नहीं हो पाता है और पुराने कर्मचारी ही नये दौर में दो-दो हाथ करते हैं।


करोड़ों की संपत्ति है


दिल्ली और मुंबई में एमटीएनएल के पास मुख्य स्थानों पर अनेक इमारतें हैं। आज वे इमारतें काफी महंगी हैं, लेकिन उनका उपयोग तक नहीं हो पा रहा है। करीब ढाई लाख करोड़ की संपत्ति एमटीएनएल के पास केवल इमारतों की ही है। लेकिन सरकार या प्रबंधन की ओर से कभी इन्हें प्रयोग में लाने पर भी विचार नहीं किया गया, वरना इन इमारतांे को किराये पर देने से ही एमटीएनएल को करोड़ों रुपए की वार्षिक आय प्राप्त हो सकती है। आज स्थिति यह बन चुकी है कि एमटीएनएल के पास अपने कार्यालयों और इमारतों के रखरखाव के लिए जमा पूंजी तक नहीं है। इस कारण से दिन-प्रतिदिन इमारतों की स्थिति जर्जर होती जा रही है।
सरकार से अपील
एमटीएनएल के कर्मचारी संघ ने वर्तमान केन्द्र सरकार से वर्षों तक देश के नवरत्न के रूप में कार्य करने वाले उपक्रम के अस्तित्च को बचाने की गुहार लगाई है। साथ ही कर्मचारी संघ ने अपनी ओर से सुझाव भी दिए हैं जिनसे एमटीएनएल नये सिरे से खड़ा हो सकता है और अपने घाटे से उबर सकता है। 



क्या कहते हैं विशेषज्ञ


विशेषज्ञों का मानना है कि कर्ज में डूबते एमटीएनल को उभारने के लिए केन्द्र सरकार को न केवल नई नीतियां बनानी होगीं, बल्कि कर्ज का भुगतान करने के लिए आर्थिक मदद भी करनी होगी। उनका मानना है कि एमटीएनएल की प्रमुख स्थानों पर खड़ी इमारतों को किराये पर देना चाहिए, इसके लिए सबसे पहले 'लैंडयूज' बदलना होगा। स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना लागू करनी होगी ताकि नई-नई भर्तियां हो सकें। सरकार के सहयोग से ही कर्मचारियों का मनोबल फिर बढ़ सकेगा। साथ ही एमटीएनएल को प्रीपेड कनेक्शन के लिए डीएसए व्यवस्था में सुधार करना होगा। निजी कंपनियां डीएसए के माध्यम से ही आगे निकल रही हैं। वहीं एमटीएनएल के पास व्यवस्था न होने से उपभोक्ताओं को समय पर कूपन उपलब्ध नहीं हो पाते हैं और परेशान होकर उपभोक्ता मोबाइल कपंनी बदल लेता है।
वर्ष 1994 में आई नई टेलीकॉम नीति ने निजी कंपनियों को मोबाइल सेवा में आने की अनुमति दे दी थी, लेकिन एमटीएनएल और डीओटी को इसके लिए अनुमति नहीं दी गई। इस कारण से एमटीएनएल के उपभोक्ता मोबाइल कंपनियों की तरफ रुख कर गए। इससे एमटीएनएल को आर्थिक रूप से नुकसान होना शुरू हो गया।
एमटीएनएल के मोबाइल सेवा देने पर ही 'कॉल दर' हुई थी सस्ती: एमटीएनएल की यूनियन के अथक प्रयासों से जब वर्ष 2001 में मोबाइल सेवा में प्रवेश दिया गया तो निजी मोबाइल कंपनियों द्वारा 18 रुपए प्रति मिनट कॉल करने और 16 रुपए प्रति मिनट कॉल सुनने की दरों में अद्वितीय परिवर्तन हो गया। एमटीएनएल के मोबाइल सेवा में प्रवेश करने मात्र से ही निजी कंपनियों को 'आउटगोइंग कॉल' एक रुपए प्रति मिनट और 'इनकमिंग कॉल' नि:शुल्क करनी पड़ी। इस तरह से एमटीएनएल निजी कंपनियों की मनमानी पर रोक लगाने में सफल रहा था।
देश के नवरत्नों में से एक एमटीएनएल ने देश में सामाजिक-आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। देश में हजारों लोगों को न केवल रोजगार दिया, बल्कि 60 हजार करोड़ का राजकोष भी बढ़ाया।
ल्ल एमटीएनएल में स्थाई बोर्ड का भी अभाव है जिस कारण महत्वपूर्ण निर्णय नहीं हो पाते हैं। यहां तकनीकी निदेशक का पद पिछले दो वर्षों से खाली पड़ा है। तकनीकी निदेशक की परिवर्तन व नई-नई योजनाओं के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। इनके न होने से किसी भी विषय पर तुरंत निर्णय लेकर त्वरित कार्रवाई का अभाव रहता है और कोई भी अन्य अधिकारी इस कमी की पूर्ति नहीं कर सकता।
गत एक वर्ष से मुख्य प्रबंध निदेशक नियमित न होने से भी एमटीएनएल सही तरीके से कार्य नहीं कर पा रहा है। इस कारण योजना निर्माण, रणनीति और कार्यों को दिशा नहीं दी जा रही है। ऐसे में एमटीएनएल की स्थिति बिना कप्तान के जहाज के समान हो चुकी है।
निदेशक मार्केटिंग की नियुक्ति न होने के कारण भी एमटीएनएल अपने राजस्व को बढ़ाने में सफल नहीं हो पा रहा है। इस कारण से एमटीएनएल के उपकरणों को बाजार में सही रूप में पेश नहीं किया जा रहा है। इसी कारण बाजार में एमटीएनएल अपने प्रतिद्वंद्वियों को टक्कर नहीं दे पा रहा है।

निवेश के लिए कोष नहीं, कैसे चलेगा एमटीएनएल
कभी सरकार को सबसे ज्यादा फायदा देने वाला उपक्रम एमटीएनएल आज डूबने के कगार पर है। पिछले पांच छह वर्षों से एमटीएनएनएल लगातार घाटे में जा रहा है। कमाई घटती जा रही है जबकि खर्चे बढ़ते जा रहे हैं। जितनी कंपनी की कमाई है उससे ज्यादा उसका घाटा है, इसके चलते एमटीएनएल का निजीकरण किए जाने की मांग भी उठने लगी है। वहीं बाजार में नई आई निजी कंपनियां लगातार फायदे में जा रही हैं। इन तमाम पहलुओं को लेकर हमने एमटीएनएल के सीएमडी (अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक) श्री पीके पुरवार सेबातचीत की प्रस्तुत है उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश


 एमटीएनएल के घाटे में जाने

के क्या कारण हैं?


देखिए किसी भी कंपनी को चलाने के लिए 'निवेश' की जरूरत होती है। जैसे-जैसे तकनीक बढ़ रही है वैसे-वैसे 'निवेश' भी बढ़ रहे हैं लेकिन एमटीएनएल में ऐसा नहीं हो रहा है। यहां खर्चें बढ़ रहे हैं लेकिन कमाई नहीं बढ़ रही है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि पिछले सात वर्षों के दौरान एमटीएनएल की तरफ से कमाई बढ़ाने के लिए कोई बड़ा निवेश नहीं किया गया है। इसलिए हम घाटे में जा रहे हैं।
ल्ल निवेश न किए जाने का क्या कारण है?
दरअसल एमटीएनएल के पास निवेश के लिए पैसा ही नहीं है। वर्ष 2010 में एमटीएनएल के पास 5 हजार करोड़ रुपए थे। तब सरकार की तरफ से हमें स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए कहा गया जिसमें शर्त रखी गई कि एमटीएनएल स्पेक्ट्रम की नीलामी में भाग नहीं लेगा। नीलामी में जो निजी कंपनियां बोली लगाएंगी उसी के हिसाब से हमें रकम देनी होगी। हमें 3 जी और 2जी के स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए लगभग साढ़े 11 हजार करोड़ रुपए चुकाने पड़े। इसके लिए एमटीएनएल को खुद के पास के पांच करोड़ रुपए में से चार हजार करोड़ रुपए खर्च करने पड़े और साढ़े सात हजार करोड़ रुपए बैंक से कर्ज लेना पड़ा। इतने बड़े खर्च से एमटीएनएल की कमर टूट गई और वह लगातार घाटे में जाने लगा।
ल्ल क्या स्पेक्ट्रम खरीदना जरूरी था और स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद घाटा होने का क्या मतलब?
एमटीएनएल एक सरकारी उपक्रम है ऐसे में यदि सरकार की तरफ से कोई आदेश मिलता है तो उसे मानना ही पड़ता है। जहां तक स्पेक्ट्रम खरीदने के बाद घाटा होने की है तो एमटीएनएल ने 6600 करोड़ रुपए 3जी सर्विस के लिए खर्च किए थे जबकि 4500 करोड़ रुपए 4जी के लिए खर्च किए थे। 3जी सर्विस तो एमटीएनएल आज भी दे रहा है। उस स्पेक्ट्रम का इस्तेमाल भी कर रहा है लेकिन 4जी सर्विस सफल नहीं हो सकी। एमटीएनएल ने वर्ष 2014 में स्पेक्ट्रम सरकार को वापस दे दिया। इसके बाद सरकार ने एमटीएनएल का रुपया तो वापस कर दिया लेकिन उसका ब्याज नहीं दिया। एमटीएनएल बैंक से उस कर्ज का आज तक ब्याज चुका रहा है।
ल्ल इसका अर्थ यह हुआ कि एमटीएनएल पर स्पेक्ट्रम का खर्च जबरन थोपा गया?
ऐसा मैं कैसे कह सकता हूं लेकिन जिस तरह एमटीएनएल एक सरकारी उपक्रम है। ऐसे में यदि ' रिजर्व रेट' पर उसे स्पेक्ट्रम सरकार की तरफ से मुहैया कराया जाता तो निश्चित तौर पर एमटीएनएल घाटे में नहीं जाता। एमटीएनएल के पास जो पांच हजार करोड़ रुपए की रकम थी उसका इस्तेमाल नए टावर लगाने व अन्य जरूरी कामों के लिए किया जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और नतीजतन आज हम घाटे में जा रहे हैं।
ल्ल इसका अर्थ हुआ कि पिछली सरकार की नीति की वजह से एमटीएनएल घाटे में गया?
देखिए मेरा जो काम है वह मैं कर रहा हूं। एमटीएनएल भी अपनी कार्यशैली के अनुसार ही काम कर रहा है। इसके लिए किसी को दोष देना ठीक नहीं है फिर चाहे पिछली सरकार हो या वर्तमान सरकार।
ल्ल कभी आप सबसे आगे थे लेकिन आज आप पिछड़ गए हैं ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है कि हम पिछड़ गए हैं। हम सिर्फ मोबाइल सेवा में पीछे हुए हैं। जहां तक 'लैंडलाइन' फोन और 'ब्राडबैंड' की बात तो उसमें हम कल भी सबसे आगे थे और आज भी सबसे आगे हैं। बाजार में इन दोनों क्षेत्रों में हम ' मार्केट लीडर' हैं।
ल्ल मोबाइल सेवा के क्षेत्र में पिछड़ने का क्या कारण है?
देखिए हर जगह काम करने का एक तरीका होता है। जहां तक निजी कंपनियों के हमसे आगे जाने की बात है तो उन्हें वर्ष 1995-96 में लाइसेंस मिले थे। जबकि एमटीएनएल को वर्ष 2000 में लाइसेंस मिला। इसके बाद भी हम मोबाइल सेवा में 'मार्केट लीडर' रहे 22 प्रतिशत बाजार पर हमार नियंत्रण रहा लेकिन प्राइवेट कंपनियां अपने टावर बढ़ाती गई। उनके खर्चे कम थे तो कमाई बढ़ती गई लेकिन हमारे खर्चे भी बढ़ते गए। निजी कंपनियों के मुकाबले हम टावर नहीं लगा पाए इसलिए हम लोग पीछे हो गए।
ल्ल टावर नहीं लगे तो आप पिछड़ गए इस बात का क्या अर्थ हुआ?
आपको बता दूं एमटीएनएल के दिल्ली और मुंबई के मिलाकर कुल 35 हजार कर्मचारी हैं। जिनकी सालाना तनख्वाह लगभग 2 हजार करोड़ रुपए बैठती है। क्या किसी निजी कंपनी में ऐसा हो सकता है, नहीं हो सकता। हमारी जितनी कमाई है उसका एक बड़ा हिस्सा तो लोगों की तनख्वाह में चला जाता है। बात घूम फिर कर वहीं आ जाती है जब निवेश के लिए पैसा ही नहीं लग पा रहा है तो कमाई कैसे बढ़ेगी। इसलिए हम मोबाइल सेवा के क्षेत्र में दूसरी कंपनियों के मुकाबले पिछड़ रहे हैं। हमारी कमाई लगभग 3 हजार करोड़ रुपए है और घाटा हर वर्ष करीब 5 हजार करोड़ रुपए का हो रहा है। ऐसे में निवेश हो पाना संभव नहीं हो पा रहा है। नया निवेश नहीं हो पा रहा तो कमाई भी नहीं बढ़ पा रही।
ल्ल कर्मचारी संघ का कहना है कि हर बार सीएमडी बदल जाते हैं, हमारी बातों पर गौर नहीं किया जाता, तकनीकी निदेशक का पद भी दो वर्षों से रिक्त पड़ा हुआ है। इस बारे में आपका क्या कहना है?
देखिए जहां तक सीएमडी की बात है तो वह सरकारी नुमाइंदा होता है। सरकार को जो भी व्यक्ति उपयुक्त लगता है उसे वह जिम्मेदारी सौंपी जाती है। तकनीकी निदेशक, निदेशक एचआर और निदेशक वित्त चारों पदों पर सीधे केंद्र द्वारा नियुक्ति की जाती है। इसलिए इस बारे मैं कुछ नहीं कह सकता कि पद दो वर्षों से क्यों खाली पड़ा हुआ है। जहां तक सीएमडी के बदलने की बात है तो वह भी सरकार के ऊपर भी निर्भर करता है कि किसको कितने दिनों तक जिम्मेदारी दी जाती है। रही बात कर्मचारी की मुझसे पूर्ववर्ती भी यहां पर सीएमडी रहे हैं। फिलहाल तो ऐसी कोई बात नहीं है यदि किसी की कोई समस्या होती है तो उसका पूरा समाधान किया जाता है।
ल्ल अब आप सीएमडी हैं तो एमटीएनएल को घाटे से बाहर लाकर फिर से फायदे का उपक्रम बनाने के लिए क्या योजना है?
फिलहाल तो हम 2जी को 800 व 3जी 1080 टावर के टावर लगाने जा रहे हैं। वर्ष 2015-2016 तक के लिए हमारी यह योजना है। इसके बाद हमारे पास जो भी साधन उपलब्ध होंगे उसके हिसाब से हम काम करेंगे। इसके अलावा एमटीएनएल के पास जो संपत्तियां हैं उन्हें किराए पर देकर भी हम कुछ कमाई बढ़ाने की कोशिश में जुटे हैं। पिछले वर्ष हमने एमटीएनएल की इमारतों को किराए पर देकर लगभग 90 करोड़ रुपए कमाए थे। इस वर्ष इसे और बढ़ाने की कोशिश रहेगी। ल्ल

'कन्वर्जन बिलिंग कस्टमर रिलेशनशिप मॉड्यूल' भी नहीं रहा कारगर
'कन्वर्जन बिलिंग कस्टमर रिलेशनशिप मॉड्यूल' (सीबी.सीआरएम) व्यवस्था 2005-06 में शुरू की गई थी। यह 500-600 करोड़ की योजना थी। इसके तहत एमटीएनएल के अनेक कनेक्शन का एक ही बिल तैयार कर जमा किया जा सकता था। उदाहरण के लिए यदि एक परिवार में पांच कनेक्शन हैं तो उन सभी का एक ही बिल तैयार होगा। लेकिन तकनीक के साथ-साथ नया सुधार न होने से यह योजना भी असफल रही।
'ट्रम्प' के कूपन नहीं मिलते
'ट्रम्प' कनेक्शन के कूपन की आपूर्ति बाजार में बहुत कम है। इस कारण उपभोक्ता मजबूरन नंबर 'पोर्ट'करा लेते हैं। अधिकांश समय 'सर्वर डाउन' होने के कारण कई बार कूपन रिचार्ज तक नहीं हो पाते और यदि होते भी हैं तो दूसरी मोबाइल कंपनियों की तुलना में बहुत अधिक समय लेते हैं। निजी कंपनियों के मुकाबले 'ट्रम्प' के कूपन की उपलब्धता भी कम रहती है और 'नेटवर्क' अच्छा नहीं होने से उपभोक्ता परेशान रहते हैं।
-राजेश अवाना, रुद्रा मोबाइल गैलेरी, बदरपुर

वर्ष 2009-10 एमटीएनएल को 2,611 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा इसके लिए केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता की भी मांग की गई है।
ल्ल एमटीएनएल के लैंडलाइन कनेक्शेनों में मार्च, 2009 से मई, 2014 की अवधि में 1.14 प्रतिशत की कमी हुई है ।
मार्च 2009 से मई2014 के बीच एमटीएनएल के दो सेवा क्षेत्रों मुम्बई और दिल्ली में मोबाइल उपभोक्ता आधार का बाजार शेयर 10.87 प्रतिशत से घटकर 4.83 प्रतिशत हो गया है।

वर्ष 2009 से 2014 के बीच एमटीएनएल के राजस्व में 23.87 प्रतिशत की कमी हुई है। वित्तीय वर्ष 2012 में एमटीएनएल को 5321 करोड़ रुपए का घाटा हुआ ।


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